कुंडलपुर दमोह । सुप्रसिद्ध सिद्ध क्षेत्र ,जैनतीर्थ कुंडलपुर में विश्व वंदनीय संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के जेष्ठश्रेष्ठ निर्यापक श्रमण मुनि श्री समयसागर जी महाराज ने मंगल प्रवचन देते हुए कहा आप लोगों ने पढ़ा होगा दर्शन पाठ में एक कारिका आती है दर्शनेन जिनेंद्रानाम——-अंजलि बना लूं और उसमें एक-एक बूंद जल डाला तो वह रिस जाता है। इसी प्रकार जिनेंद्र भगवान के दर्शन और मुनींद्रों के दर्शन करने से चिर संचित जो पाप हैं एक क्षण में क्षय को प्राप्त हो जाते हैं ।दर्शन पाठ की कारिका का यह भाव है हमने कितने बार जिनेंद्र भगवान के दर्शन किए कितने बार मुनींदों के दर्शन किए इस उपरांत भी वह पाप गल क्यों नहीं रहा। वह पाप समाप्त क्यों नहीं हो रहा है ।क्षय को क्यों नहीं प्राप्त हो रहा है ।अब उत्तर क्या मिलेगा ,उत्तर यही मिलेगा उस कारिका को तो पढ़ लिया उसको आत्मसात नहीं कर पाए ।प्रसंग गुरुदेव के मुख से यह सुना की वंदना करना सीखो मैं बैठे-बैठे सुन रहा था मन में विचार आया गुरुदेव ने क्या कहा कि वंदना करना सीखो ।इसका अर्थ है प्रभु के सामने खड़े होने से वंदना नहीं होती मन भी खड़ा होना चाहिए ।हम तो प्रतिमावत खड़े हो गए पर मन हमारा कहां जा रहा मन में कौन-कौन सी अपेक्षाएं उत्पन्न हो रही उन अपेक्षाओं के साथ प्रभु की आराधना है वह आराधना नहीं मानी जाती। समीचीन आराधना हम करते हैं तो मोह कर्म के ऊपर प्रभाव पड़े बिना रह नहीं सकता। गुरुदेव के जो संकेत हैं उस पर हमारा ध्यान जा रहा बंदना करना सीखो हम अब तक नहीं सीख पाए यदि करते तो इस धरती पर नहीं होते ।मोक्ष की यात्रा होती संसार का परिभ्रमण होता है। प्रति समय आत्मा में परिणाम उत्पन्न होते रहते हैं और वे परिणाम शुभातमत भी होते हैं और अशुभातमत भी परिणाम होते हैं ।परिणाम का होना अलग वस्तु और परिणाम का कट जाना अलग वस्तु ।गुरुदेव हम लोगों को बार-बार प्रतिदिन प्रसंग बनाकर संबोधित करते थे वे वर्तमान में उपस्थित नहीं है किंतु भावों का तारतम्य बना रहे तो निश्चित रूप से परिणामों में उज्जवलता आ सकती है ।वह परिणाम जो होते हैं उसमें निश्चित रूप से पूर्व में अज्ञान दशा में जो भी पाप का अर्जन किया है उसके प्रतिफल के रूप में जब कर्म उदय में आते है तो उपयोग को प्रभावित कर सकता है ।कर सकता है इसलिए कह रहा हूं यदि अनिवार्य रूप से वह प्रभाव डाले तो फिर कर्मबंध की जो श्रृंखला है या उसकी जो परंपरा है वह कभी भी टूट नहीं सकती है। पुरुषार्थ के माध्यम से उस परंपरा को तोड़ने का पुरुषार्थ किया जा सकता है ।जिसके अंदर कर्मबंध के जो हो रहा है वंध उसको तोड़ने का पुरुषार्थ वह कर लेता है और दूसरी बात यह है कि जिसको कर्मबंध की कोई चिंता नहीं है उसके लिए? क्वशचन मार्क जिसको कर्मबंध की कोई चिंता नहीं है भगवान का उपदेश भी प्रभाव डालने वाला नहीं है। हम कह रहे जब भगवान अनंत शक्ति के धारक हैं, विश्व को जानने वाले हैं उनका ज्ञान अपने आप में क्षायिक ज्ञान माना जाता है। दर्पणाते जिसको आप लोग बोलते हैं उनकी दिव्य ध्वनि में जो बात आती उनकी दिव्य ध्वनि की विराटता को कौन स्पष्ट कर रहे हैं गणधर परमेष्ठी जो द्वादशांग के पाटी माने जाते हैं गणधर पद पर आसीन हैं वे भी प्रभु की आराधना निरंतर करते रहते हैं और जो मुमुक्षु भव्य जीव है वह कल्याण करना चाहता है उसके लिए वह उपदेश देते हैं और उपदेश का प्रभाव भी उसी के ऊपर पड़ता है ।विस्मय सा होता कि अतीत में कितने बार अवसर प्राप्त हुए होंगे किसी को ज्ञात नहीं है कितने बार उपदेश सुने होंगे इसका ज्ञात नहीं किसी को ज्ञात है कितनी बार सुन लिया बार-बार सुनाओ ऐसा बोलते आचार्य महाराज सुना नहीं है क्योंकि कर्तव्य को गौण किया नहीं जा सकता भरी सभा में सब सुन रहे हैं मनोयोग के साथ धर्म की जो आराधना करता है उसके लिए धर्म श्रवण का लाभ मिल सकता है सुनने के लिए कर्णद्रिय है जिसके माध्यम से शब्द को ग्रहण किया जाता है। किंतु जिसके पास मन नहीं है मात्र कानों के द्वारा उस वाणी को ग्रहण कर रहा है, सुन रहा है न वह दूसरे को सुना पाएगा ना वह स्वयं ग्रहण कर पाएगा उसका अर्थ उसको समझने की क्षमता मन के पास है ।मन को जितने भी सुनने को बैठे हैं श्रोतागण, श्रोतागण उनको मान रहा आप समझ ले जो वृति है वह अलग है उनके पीछे जो बैठे हैं उनको मैं श्रोता के रूप में स्वीकार करता हूं। उनको यह उपदेश है जिन्होंने गुरुदेव के उपदेश और आदेश को आत्मसात करके जो साधना में रत हैं यथायोग्य व्रतो का पालन करने के लिए जो निरंतर प्रयास रत है उनको उपदेश नहीं है आप ही लोग बोलते जो सो रहा उसको क्या जगाना जो जाग रहा है उसको क्या सुनाना। आप लोग जागृत हैं जो जागृत है उसके लिए उपदेश काम करता है।